बुंखाल में बदलाव की बयार, अतीत के गर्त में खून का प्यासा खप्पर
कहते हैं बदलाव समय की सबसे बड़ी विशेषता होती है। पत्थर पर खिंची लकीर के निशान भी समय के साथ खत्म हो जाते हैं। बूंखाल कालिंका का जो खप्पर कभी लहू का प्यासा माना जाता था, आज वहां की बदली बयार उत्साह की मंद मंद खुश्बू बिखेर रही है। इस सब के लिए क्षेत्रीय जनता यानी राठ क्षेत्र के लोग साधुवाद के पात्र हैं।
यूं तो वर्तमान और अतीत के विचारों में कभी भी एका नहीं रही। कालखंडों की आपसी जंग में वर्तमान सदा ही भारी रहा है। लेकिन पौड़ी जनपद के बूंखाल कालिंका की पूजा उपासना में आए बदलाव से एक बात तो साफ हो जाती है कि वर्तमान सच मंे वर्तमान होता है। वह अतीत से बेहतर होता है, और होगा क्यों नहीं, अतीत का संघर्ष और उसका अनुभव मानव को ऐसे बदलावों के लिए तैयार करता है जो एक समय में नामुमकिन समझे जाते हैं।
ज्यादा दूर नहीं दो दशक पूर्व के पन्नों को पलट कर देखते हैं। तब बूंखाल कालिंका के मंदिर परिसर में दर्जनों की तादाद नर भैंसों जिन्हें हमारे यहंा की भाषा में बागी कहा जाता है की बलि दी जाती थी। तब काली की खप्पर में गर्दन देने वाले बागियों की तादाद से ही मेले की भव्यता तय होती थी।
काली के खप्पर में बागियों को मारने के लिए बाकायदा वहां बनी एक समिति प्रशासन की मौजूदगी में टोकन जारी करती थी। दूर से आए बागियों को यहां प्राथमिकता का भी प्रावधान रहता। और सबसे आखिर में पुजारियों के गांव का बागी मंदिर परिसर में प्रवेश पाता था। यानी यहां मेहमान और मेजबान की भी मर्यादाएं अपनी जगह थी। पता नहीं क्यों बूंखाल की धरती दशकों तक पशुओं की खून से इस तरह लाल होती रही। इस बात को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता है कि कुछ तो वजह रही होगी।
अब सुखद यह है कि कुछ सालों पूर्व बूंखाल में बलि प्रथा की जगह सात्विक पूजा ने ले ली है। मां के इस दरवार में अब छत्र, घंटे चढ़ाए जाते हैं। देवी की स्तुतिगान के लिए पाठ के साथ ही जागरण व जागर कार्यक्रम होते हैं। बलि प्रथा बंद होने पर यह लग रहा था कि इससे बूंखाल मेले का आकर्षण अपेक्षाकृत कम हो जाएगा। आज समय ने स्थितियांे को बदल जरूर दिया है लेकिन आस्था सैलाब और भी जबरदस्त हुआ है।
आज 2 दिसंबर को बूंखाल कालिंका के मंदिर परिसर में दर्शनों के लिए भक्तजनों का जुटना शुरू हो गया है। क्षेत्रीय विधायक व प्रदेश सरकार के कैबिनेट मंत्री डा धन सिंह रावत भी गत दिवस ही क्षेत्र में पहुंच गए हैं। उनकी टीमें बूंखाल आयोजित होने वाले कार्यक्रमों की व्यवस्थाएं देखने का जिम्मा संभाले हैं।
सुधार की दिशा में किए जाने वाले प्रयासों के नतीजे कितने सुखद होते हैं बूखांल के मेले के अतीत और वर्तमान को जानने वाले लोग इसे ज्यादा भले से समझ सकते हैं। तो आइए। माता के दर्शनों का पुण्य लाभ लेते हुए जयकारा लगाते हैं जय मां बूंखाल।